Friday, February 29, 2008

इमरोज़ और अमृता प्रीतम...

इश्क के कुछ किस्से शानदार होते हैं....हैरातान्गेज़ भी. शायद ऐसे लोगों में एक अलग ही तासीर की इंसानियत होती है। एक अलग ही इल्म, एक अलग ही अहसास। उमा शर्मा की लिखी किताब अमृता इमरोज़ पढी तोह ताज्जुब हुआ। यह देख कर की उस ज़माने में भी जाती और शक्सियती इमान को जताने के लिए इस जोड़े ने एक ऐसी ज़िंदगी इन्तेखाब की जो सारे मसाहरे को खासी नागवार गुज़री ...फिर भी यह रिश्ता, यह अहद दिनों हफ्तों या महीनों नही, त उम्र रहा....


इमरोज़ ने अपनी पूरी शक्सियत, अपना पूरा ज़हनी वजूद अमृता की परछाई कर लिया...और मख्सूस बात यह है की इस मुआहिदे की मजबूती जहानी बंदिश से परे थी..यह रिश्ता, यह ta'luq किसी की मंजूरी का मोहताज नही रहा....

कैसी रही होगी वह अमृता जिस ने १९ साल की उम्र में यह लिख डाला..और कैसा रहा होगा वह इमरोज़ जिस ने अपनी हस्ती अमृता में मिला दी....

ऐसा इश्क करने के लिए जुर्रत चाहिए। एक सुलगती सी जुर्रत। ऐसा इश्क जंगजू नही होता, ठंडा भी नही होता, बस सुलगता रहता है पसेमंज़र में...

उम्र गुज़रती है और रिश्ते बनते बढ़ते रहते हैं, बस ज़हानी और मशरावी बंदिशों से निकलने की देर है




अज आखां वारिस शाह नूं किद्रे कबरां विचों बोल
ते उठ किताब-ए-इश्क दा कोई अगला वर्का fओल

इक रोई सी धी पँजाब दी तूं लिख लिख मारे वेन
अज लखाँ धीयाँ रोंदीयाँ तैनूं वारिस शाह नूं कहन
उठ दरदमंदान दिया दर्दीया अज तक आपना पँजाब
अज बेले लाशां विछियाँ ते लहू दी भरी चनाब
अज धरती ते लहू वस्सेया ते कबरां पैय्याँ चोण
ते प्रीत दीयां शाह्ज़ादीयाँ अज विच मजारे रोण
अज सभे कैदों बन गए हुसन इश्क दे चोर
ते अज किथों ल्यावाँ लब्ब के में वारिस शाह इक होर

अज आखां वारिस शाह नूं किद्रे कबरां विचों बोल
ते उठ किताब-ए-इश्क दा कोई अगला वर्का फोल

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